Maharaj Yah Karn Nahi, Yah Raudra Roop Hai Shankar Ka-महाराज यह कर्ण नही, यह रौद्र रूप है शंकर का-इस अति सुंदर कविता को लिखा एवं प्रस्तुत Vivek Kautilya जी ने किया है,इस कविता के माध्यम से कवि ने महाभारत के युद्ध मे कर्ण के युद्ध कौशल का बखान किया गया है।
यह शौर्यमयी परिदृश्यों की एक भौगोलिक संरचना है,
क्षण सम्मोहन, कर्ण पराक्रम युद्ध क्षेत्र की रचना है
जिसके पौरूष प्रबल पराक्रम पर पांडव घबराते है
मन्त्र मुग्ध संजय जिसका गुणगान सुनाये जाते है
क्या वर्ण कहूँ, क्या धार कहूँ इसके निषंग के हर शर का
महाराज यह कर्ण नही, यह रौद्र रूप है शंकर का।
छाती की पसली कवच हुई कुंडल का छिद्र है कानों में
है अभाव किन्तु कर्ण को किया नही विचलित बाणों ने
नेत्रों में तेज है दिनकर का, भृकुटी प्रत्यंचा रूपक है
तांडव के तट पर महादेव का ध्वनि विनाश का सूचक है
शल्य स्वयं अवरोधित कर पाते न वेग है अश्वों का
नेत्र मेरे जो देख रहे वे उत्प्रेरक रूप है दृश्यों का
रोम-रोम रणभेरी है यह रण गर्जन है कड़-कड़ का
महाराज यह कर्ण नही, यह रौद्र रूप है शंकर का।
कर्ण बन क्रूदांत काल पांडव सेना पर टूट पड़े
त्राहि-त्राहि की आवाजे है कर्ण मृत्यु बन युद्ध करे
आज युद्ध में स्वयं कर्ण यमराज दिखाई पड़ते है
और मूर्क्षित होकर सारे सैनिक कुरूक्षेत्र में गिरते है
इस प्रकार वो युद्ध क्षेत्र में लाश बिछाये फिरते है
लगता है जैसे अन्तरिक्ष से रक्त की वर्षा करते है
चक्षु मेरे उद्वेलित है और साक्षी बनते इस रण का
महाराज यह कर्ण नही, यह रौद्र रूप है शंकर का।
सूर्य का ही तूर्य होने चला अब कर्ण है
पार्थ को खोजे फिरे और हिंसक नयन है
सारथी जो कृष्ण है रथ को भगाये जा रहे है
पार्थ को राधेय से बचाये जा रहे है
ज्ञात हो कर्ण को इंद्र का वरदान है
कर्ण के उस शस्त्र पर पार्थ का अवसान है
सार्वभौमिक सत्य है यह कर्ण का संग्राम है
कुरूक्षेत्र में वह युद्ध का रचता नया आयाम है
परशुराम का शिष्य खड़ा है बनके सूरज इस रण का
हे पार्थ सुनो! यह कर्ण नही, यह रौद्र रूप है शंकर का।
महाराज क्या कर्ण कहे उसके वाणी में सुने जरा
और हृदय का कौतुहल उसके वाणी में बुने जरा
हे शल्य हयो को तेज करो और वेगवान हो उड़ो वहाँ
तूफानों को पृथक करो ले चलो खड़े हो श्याम जहाँ
श्याम को है बाँधना, पार्थ पर सर साधना
आज इस ब्रह्माण्ड में महि को है मुझे लांघना
काल को जकड़े चला मैं, काल क्या कर लेगा मेरा
काल के विपरीत काली रात से निकला सवेरा
संजय भी यह दृश्य देख स्वयं नही रूक पाते है
युद्ध कला रमणीय देखकर नतमस्तक हो जाते है
अंग-अंग विद्युत् के जैसा प्रतीत हो जिस नर का
महाराज यह कर्ण नही, यह रौद्र रूप है शंकर का।
अब भयंकर युद्ध का क्षण आ गया है
महि पर या युद्ध कुछ गहरा गया है,
क्या पार्थ का अब रथ रूकेगा
या लड़ रहा मस्तक झुकेगा
कर्ण कुछ ऐसे लड़े है
कृष्ण भी व्याकुल हुए है
रक्त की एक नीव पर सपने सभी फिर से खड़े है
विपदाओ में पार्थ पड़े है विपदाओ के घड़े बड़े है
बाधाओं के मेघ समेटे कर्ण काल के संग खड़े है
परमेश्वर माया दिखलाये कर्ण की काया समझ न आये
अंगराज की युद्ध कला से स्वर्ग लोक भी भीगा जाये
सभा सुनेगी आज यह गीत पुरातन दिनकर का
हे कलयुग! यह कर्ण नही, यह रौद्र रूप है शंकर का