तन खा गई है ये तनखा ,ना छोड़ा मालिक मन का
आंखों के आगे धुंधलका माया का,माया का
सुबहा से किरणे गायब,खुद के थे निर्णय गायब
उठ उठ के गिरणे गायब ,पाया क्या ? कुछ भी ना
वे पंछिया तेरे पर तो बड़े हो गए हैं ,पर तुझे उड़ाना आया क्या ?
तन खा गई है ये तनखा ,ना छोड़ा मालिक मन का
सूरज को डूबते पंछियों को घूमते हैं देखे जमाने हो गए
हवाओं को चूम के डोलियों को झूमते देखे जमाने हो गए
छोड़ते रात को दफ्तर,हार गये अपने लश्कर
इन झमेलो में फसकर ,छुड़ाया क्या ? कोई भी ना
वे बंदेया तूने पैसे तो कमा लिए,पर भरपेट खाना खाया क्या?
तन खा गई है ये तनखा ,ना छोड़ा मालिक मन का
जकड़े है पैर ये,किस्तों के फेर ये इनसे छुड़ाया जाए ना
चिंता के शेर ये,नोचे दिन दोपहर ये इनसे छुड़ाया जाए ना
रात को छत पर चढ कर,एक आधा जाम पकड़ कर
थोड़ा ‘राहगीर’ को पढकर,बचाया क्या ?बतायें क्या?
वे बंदेया तूने कल को तो सजा लिया,पर तेरा आज तू जी,पाया क्या?
तन खा गई है ये तनखा ,ना छोड़ा मालिक मन का
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