इस पोस्ट में स्टोरिया आर्ट गैलरी फ़ैसलाबाद में आयोजित हर्फ़ ज़ार मुशायरा में इकराम अर्फ़ी द्वारा पेश की गयी शायरिया प्र्स्तुत है
तेरी आंखों की तमन्ना से एक किनारा कर लूं
गैर मुमकिन है की मिट्टी को सितारा कर लूं
इस कदर कहते मोहब्बत है कि दुनिया वाले
एक मुट्ठी भी अगर दें तो गुजारा कर लूं
तुम किसी चांद के परतो को नजर से रोको
मैं किसी फूल की पत्ती को इशारा कर लूं
जलती बुझती हुई आंखों से दारीच्चा देखूं
आखरी बार मोहब्बत का नजारा कर लूं
रेखता कैसी मोहब्बत का सबब है ‘इकराम’
लखनवी यार की गाली भी गवांरा कर लूं
घर को संवारने की अजब ये तरंग है
बाहर चटाई भी नहीं अंदर पलंग है
तकबीर कर रहा हूं के आफाक ले उड़े
हाथों में मेरे डोर नहीं है पतंग है
आंखें मुती हो तो दिलों की खबर भी लूं
आंखों से मेरी जंग थी आंखों से जंग है
मुमकिन नहीं के नाखून ए दिल से जुदा हो गोस्त
जो रंग बेदिली का वही दिल का रंग है
जानेजहा की तेज तबीयत है क्या करें
जानेजहा को दिल में उतरने का ढंग है
इकराम नाचता है कोई देखता नहीं
दीवाना आदमी है सरासर मलंग है
ये शाखो में तय सब्ज रुतो की जय
एक जमीनज्यादा जैसे पर्वत है
मुझे ऐसे बेकार तेरे जैसे शह
आए दुख कीदीवार,थोड़ी सी तो ढह
लोरी देती है दो हाथों की लय
सिमटी आंखों में सारे बदन की मय
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