Poetry Details
इस पोस्ट में महाभारत के युद्ध में वीर अभिमन्यु के द्वारा लड़े गये अंतिम युद्ध का अति सुंदर वर्णन आशूतोष जी द्वारा किया गया है
महाभारत युद्ध में 13 वां दिवस कौरवों और पांडवो दोनों के लिए सबसे त्रासत दिन था
13 वां दिन एक ऐसा दिन था जब अनीति अपने चरम पर थी
मैं आज आपको इसी 13 वां दिवस की दास्तान इस कविता के माध्यम से सुनाने जा रहा हूं
जब कुरुक्षेत्र के समर भूमि में सर सिया पर भीष्म हुए
तब कुरु कलंक के नैनों में क्रोध आने लगी और ग्रीष्म हुए
गुरुदेव बनेंगे सेनापति यह चाल चली थी शकुनि ने
जिसमें फंसकर सब जूझ रहे वह जाल बुना था शकुनि ने
इस बार चली थी चाल अजब जिसमें ना कोई संधि हो
गुरुवर द्वारा वह ज्येष्ट पांडू समर भूमि में बंदी हो
फिर पांडव सेना में गुरुवर ने ऐसा तांडव नृत्य किया
सब समर मुंड से पाट दिए कुछ ऐसा चित्र विचित्र किया
निज़ सेना की ये दशा देख,अर्जुन को क्रोध अपार हुआ
बज उठा कृष्ण का पांचजन्य फिर गांडिव का टंकार हुआ
कौरव सेना के होश उड़े जब गुरुवर का रथ चूर हुआ
जो सोचा था वह विफल हुआ सब सपना चकनाचूर हुआ
फिर कहा द्रोण ने दुर्योधन मैं उस पर पार ना पा सकता
अर्जुन के रहते धर्मराज को बंदी नहीं बन सकता
फिर कहा द्रिगर्तो होने मिलकर हम प्रण पर प्राण लड़ाएंगे
हम अर्जुन को ललकारेंगे और दूर तलक ले जाएंगे
हम जान रहे हैं अर्जुन से पा सकता कोई पार नहीं
पर इससे बढ़कर मित्र तुम्हें मैं दे सकता उपहार नहीं
फिर क्या था,फिर क्या था ऐसी नीति बनी जिसको सबने मंजूर किया
उसने अर्जुन को ललकारा और समर भूमि से दूर किया
अर्जुन के जाते गुरुवर ने फिर कुछ नवीन संरचना की
जिसका भेदन हो सके नहीं उसे चक्रव्यूह की रचना की
पांडव सेना भयभीत हुई यह देख शत्रुदल सूखी हु्ये
जो सदा शांत चित रहते थे वह धर्मराज भी दुखी हुए
निज़ सैन्य तात को दुखी देख फिर शेर बब्बर को जगना था
जो धनी धनुष के बनते थे उनको भी नाक रगड़ना था
है उम्र 18 बरस मगर यह बड़ा धनुष का धन्नू है
सब ने देखा कोई और नहीं है अर्जुन सुत अभिमन्यु है
मैं इसका भेदन कर दूंगा यह भेद गर्भ में सुनाहुआ
दादाजी चिंता दूर करो यह सुन साहस सौ गुना हुआ
फिर अभिमन्यु के पीछे ही कुछ तेज चले कुछ तीन चले
कुछ पैदल घोड़े रथ सवार ले गदा,गदाधर भीम चले
अभिमन्यु को ना रोक सका वह द्वारा तीसरे पार हुए
पर आज द्वार पर जयद्रथ था चारों भाई लाचार हुए
अभिमन्यु ने मुड़कर देखा पीछे ना कोई अपना था
पर विचलित तनिक न हुआ वीर ऐसा ही उसका सपना था
कोई एक बड़ा कोई दो दो सन्ग कोई ले झुंडों का झुंड भिड़ा
लाशों से पटने लगी धरा जब मुंड मुंड पे मुंड गिरा
दुर्योधन दुशासन विकर्ण क्रवर्मा अश्वथामा को
गुरू द्रोण कर्ण हरा दिया फिर मारा शकुनी मामा को
वह कर्ण भिड़ा जो दुर्योधन के विजय लक्ष्य की आशा था
वह कर्ण भिड़ा जो दुर्योधन के अंतर मन की भाषा था
वह कर्ण भिड़ा जो एक साथ सौ बाण चलाने वाला था
वह कर्ण भिड़ा जो दुर्योधन को विजय दिलाने वाला था
सबने देखा वह अंग राज रथ सहित धरा पर पड़ा मिला
कुछ चेत हुआ तो भाग गया वह दूर सभी को खड़ा मिला
फिर दुर्योधन हो गया कुपित ले सबका नाम पुकारा है
सब इसे साथ मिलकर मारो ऐसा आदेश हमारा है
फिर एक साथ भिड़ गए सात सातों ने ऐसा काम किया
रथ तोड़ सारथी को मारा घोड़ो का काम तमाम किया
तलवार तीर जब टूट गए तो रथ के चक्के उठा लिये
उस रथ के टूटे चक्के से कितनों के छक्के छुड़ा दिए
यह देख अधम दुशासन ने तब सर पर गदा प्रहार किया
गिर गया धरा पर वीर तभी पीछे से उसने वार किया
सब नियम युद्ध के भूल गए और ऐसा अत्याचार किया
फिर बारी-बारी से सबने उसके सीने पर वार किया
सब माया पथ की लीला है,मैं क्रष्ण लिखूं,घनश्याम लिखूं
कितनों को धूल चटाया है कितने कुरुओं के नाम लिखूं
शब्दों में सहज सुशीलापन अब कविता को विश्राम लिखूं
मैं उसे बालक अभिमन्यु को अव अंतिम बार प्रणाम लिखूं