ANDAAZ E BAYAAN AUR-DUBAI 2019-Jawad Sheikh

Poetry Details:-

ANDAAZ E BAYAAN AUR-DUBAI 2019-इस पोस्ट में जो गज़ल पेश की गयी है वो Jawad Sheikh के द्वारा लिखी और प्रस्तुत की गयी है ।

अपने सामान को बांधे हुये,इस सोच मे हुँ
जो कही के नही रहते,वो कहाँ जाते है

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कोई इतना प्यारा कैसे हो सकता है
फिर सारे का सारा कैसे हो सकता है
तुझसे जब मिलकर भी उदासी कम नही होती
तेरे बैगेर गुजारा कैसे हो सकता है

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मोला किसी को ऐसा मुकद्दर ना दीजिओ
दिलवर नही तो फिर कोई दीगर ना दीजिओ
अपने सवाल सहल ना लगने लगे उसे
आते भी हो जबाब तो फर फर ना दीजिओ
चादर वो दीजिओ उसे जिस पर शिकन ना आये
जिस पर शिकन ना आये वो बिस्तर ना दीजिओ
बिखराव कुछ नही भी सिमटते मेरे अजीज
अपने किसी ख्याल को पैकर ना दीजिओ
या दिल से तर्क कीजिओ दस्तार का ख्याल
या इस मामले ने कभी सर ना दीजिओ
कहिओ के तूने खूब बनायी है कायनात
लेकिन उसे लिखायी के नंबर ना दीजिओ
मयार से सिवा यहाँ रफ्तार चाहिये
‘जवाद’ उसको आखिरी ओवर ना दीजिओ

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मैने चाहा तो नही था के कभी ऐसा हो
लेकिन अब ठान चुके हो चलो अच्छा हो
तुमसे नाराज़ तो मै और किसी बात पे हुँ
तुम मगर और किसी वजह से शर्मिंदा हो
अब कही जा के ये मालूम हुआ है मुझको
ठीक रह जाता है जो शख्स तेरे जैसा हो
ऐसे हालात मे हो भी कोई हसास तो क्या
और बेहिस भी अगर हो कोई तो कितना हो
ताके तू समझे के मर्दो के भी दुख होते है
मैने चाहा भी यही था के तेरा बेटा हो

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एक तस्वीर के अव्वल नही देखी जाती
देख भी लूं तो मुसलसल नही देखी जाती
देखी जाती है मोहब्बत मे हर जुंब्बिशे दिल
सिर्फ सांसो की रिहर्सल नही देखी जाती
एक तो वैसे बढी तारीख है खवाहिश नगरी
फिर तबील इतनी कि पैदल नही देखी जाती
मैने इक उम्र से बटुए में संभाली हुयी है
वही तस्वीर जो इक पल नही देखी जाती
अब मेरा ध्यान कही और चला जाता है
अब कोई फिल्म मुकम्मल नही देखी जाती
एक मकाम ऐसा भी आता है सफर मे ‘जवाद’
सामने हो भी तो दलदल नही देखी जाती

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जो भी जीने के सिलसिले किये थे
हमने बस आप के लिये किये थे
बात हमने सुनी हुयी सुनी थी
काम उसने किये हुये किये थे
उसे भी एक खत लिखा गया था
अपने आगे भी आईने किये थे
यहाँ कुछ भी नही है मेरे लिये
तूने क्या क्या मुबालगे किये थे
अव्वल आने का शौक था लेकिन
काम सारे ही दूसरे किये थे
बढी मुश्किल थी वो घड़ी ‘जवाद’
हमने कब ऐसे फैसले किये थे

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अर्जे-ए-अलम बतर्जे तमाशा भी चाहिये
दुनिया को हाल ही नही हुलिया भी चाहिये
ऐ दिल किसी भी तरह मुझे दस्तीयाब कर
जितना भी चाहिये उसे जैसा भी चाहिये
दुख ऐसा चाहिये कि मुसलसल रहे मुझे
और उसके साथ साथ अनोखा भी चाहिये
एक जख्म मुझको चाहिये मेरे मिजाज का
यानि हरा भी चाहिये गहरा भी चाहिये
रब्बे सुखन मुझे तेरी यक्ताई की कसम
अब सुन के बोलने वाला भी चाहिये
क्या है जो हो गया हुँ मै थोड़ा बहुत खराब
थोड़ा बहुत खराब तो होना भी चाहिये
हँसने को सिर्फ ओंठ ही काफी नही रहे
‘जवाद शेख’ अब तो कलेजा भी चाहिये

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तुम अगर सीखना चाहो मुझे बतला देना
आम सा फन तो कोई है नही तोहफा देना
एक ही शक्स है जिसको ये हुनर आता है
रूठ जाने पर फिजा और भी महका देना
भाँप लेना के बहुत वक्त नही उसके पास
और फिर उसको किसी बहस मे उलझा देना
उन बुजुर्गो का यही काम हुआ करता था
जहाँ खूबी नजर आयी उसे चमका देना
हुस्न दुनिया मे इसी काम को भेजा गया है
के जहाँ आग लगी हो उसे भड़का देना
दिल बताता मुझे अक्ल की बाते क्या क्या
बंदा पूछे तेरा है कोई लेना देना
और कुछ याद ना रहता था लड़ाई मे उसे
हाँ मगर मेरे गुजिश्ता का हवाला देना
उसकी फितरत मे ना था तर्के ताल्लुक लेकिन
दूसरे शक्स को इस नेहेद पे पहुचाँ देना
जानता कि बहुत खाक उड़ायेगा मेरी
कोई आसान नही था उसे रस्ता देना
क्या पता खुद से छिड़ी जंग कहाँ ले जाये
जब भी याद आँऊ मेरी जान का सदका देना
दिल का सामान कोई खाक खरीदे उससे
याद ही जिसको ना रहता हो बकाया देना
बात करने से गुरेजा नज़र आते है मगर
खत्म है हजरते ‘जवाद’ पे लुकमा देना

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