ABBAS QAMAR@DELHI MUSHAIRA & KAVISAMMELAN | BARADARI, GHAZIABAD 23RD FEB 2025

Poetry Details

इस पोस्ट में अब्बास कमर द्वारा लिखी शायरी और गजल प्रस्तुत की गयी है जो दिल्ली मुशायरा में पेश किये गये थे

किसे फुर्सत महो साल है यह सवाल है 

कोई वक्त है भी के जाल है ये सवाल है

वो सवाल जिसका जवाब है मेरी जिंदगी

मेरी जिंदगी का सवाल है यह सवाल है

मैं बिछड़ के तुझसे बुलंदियों पर जो पस्त हूं

यह उरूज है के जवाल है यह सवाल है

ना है फिक्र-ए-गर्दिश आसमा ना खयाल-ए-जां

मुझे फिर यह कैसा मलाल है ये सवाल है

अंदर के हाउ हू से बहुत डर गए थे हम

खुद से निकल के इसलिए बाहर गए थे हम

देखे जो तुमने ख्वाब किसी और के तो क्यों

क्या मौत आ गई थी हमें मर गए थे हम

अंजाम-ए-सोजे इश्क मुकद्दर पर टाल कर

 जाने मुराद आज भी दफ्तर गए थे हम

हम क्यों कर कहे कि दश्त ने ठुकरा दिया हमें

दीवारों दर को मार के ठोकर गए थे हम

जज्बा ए दिल सरकशी से चूर होना चाहिए

जो मुनासिब है वो नामंजूर होना चाहिए

देखकर जखमे जिगर कहता है मुझसे चारा गर

ठीक है गहरा है पर नासूर होना चाहिये

वो हसी इतना है अब उसकी परस्तिश के लिए

जो नहीं राजी उसे मजबूर होना चाहिए

आपकी सादा दिली खुद आपकी तौहीन है

हुस्न वालों को जरा मगरूर  होना चाहिए

 

सौदा बराय जिंदगी आसान कर दिया

जो बिक नहीं रहा था उसे दान कर दिया

पूरी गजल का लुत्फ उठा ही नहीं सके

मतले ने इस कदर हमें हैरान कर दिया

दिल हारते ही आ गई मस्ती मिजाज में

और हमने अपनी जीत का ऐलान कर दिया

महफिल में कोई हुस्न का मिसरा अगर मिला

इतने सुनाए शेर के दीवान कर दिया

पानी पहन के दौड़ लगा दी गली गली

दरिया ने खेल खेल में नुकसान कर दिया

सामने वाले को हल्का जानकर भारी हैं आप

आपका मेयार देखा कितने मयारी हैं आप

आप तो निकले मिया हमसे बहुत आगे की चीज

हम समझते थे हमारी ही कलाकारी है आप

उफ तलक करते नहीं जिल्ले इलाही के खिलाफ

आपको दरबार की आदत है दरबारी है आप

जिस बुत पे फिदा हो गए जा जिस पे लुटा दी

उसने भी बिछड़ते हुए जीने की दुआ दी

तन्हाई से चौके जो कभी खुद को पुकारा

खामोशी से घबराए तो जंजीर हिला दी

अपनी ही किसी धुन में था उलझा हुआ वो शख्स

सो हमने कहानी भी कोई और सुना दी

 

अश्कों को आरजू ए रिहाई है रोइए

आंखों की अब इसी में भलाई है रोइए

खुश है तो फिर मुसाफिर-ए-दुनिया नही है आप

इस दश्त मे बस आबला-पाई* है,रोइए

हम है असीर*-ए-जब्त इजाजत नही हमे

रो पा रहे है आप बधाई है रोइए

 

एक ही तमाशा है,एक ही तमाशाई

रुह काँंप जाती है,वो बला है तन्हाई

मै तो राहे उल्फत की,उलझनो मे उलझा था

तुम कहो तुम्हे मेरी,याद क्यो नही आई

दर्द जब सुनाई दे, तब तो दिल दुहाई दे

क्या पता कहाँ होगी,गम ज़दो की सुनवाई?

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