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Azhar Iqbal | Latest Bhopal Mushaira 07 May 2022 | Jashn-e-Bashir Badr-इस पोस्ट में कुछ कविताये और गज़ल पेश की गयी है वो Azhar Iqbal के द्वारा लिखी और प्रस्तुत की गयी है ।
कटाकर अपने बालो पर गया क्या?
वो यादो का मुसाफिर घर गया क्या?
मुझे अब तुम बुरी लगने लगी हो
मेरे अंदर का शायर मर गया क्या?
मै अब आईना कम ही देखता हुँ
मेरा खुद से भी अब जी भर गया क्या?
मै अब रहता हूँ,अक्सर खोया खोया
कोई मुझ पर भी जादू कर गया क्या?
फिज़ा में कोई तपिश नही है
तो जिस्मो जां क्यो पिघल रहे है?
तमाम जानिब तो बारिशे है
मगर ये दिल कैसे जल रहे है?
वफ़ा के मानी फरेब क्यो है?
हर एक चेहरे पे एब क्यो है?
मै सोचता हुँ के जेहन-ए-इसां
ये कैसे साँचो मे ढल रहे है?
अपनी मर्यादाओ का गुनगान करते रह गये
देश हित मे देश का नुकसान करते रह गये
कोई उसको प्रेम की चादर उढाकर ले गया
और हम संबंध का सम्मान करते रह गये
वो किसी पत्थर की मूरत को समर्पित हो गया
और हम इस जिस्म को गुलदान करते रह गये
देवताओ के मुखोटे पहन कर आये असुर
और हम भोले बने विषपान करते रह गये
प्रेम का स्नान कर मन हो गया यगोपवीत
याचनायें बैठ कर यज़मान करते रह गये
सारे मेडल चीन,अमरीका के हिस्से आ गये
हम तो हिंदुस्तान,पाकिस्तान करते रह गये
और कुछ करना तो मुमकिन था नही,सो रात भर
उस निगाहे नाज़ को हैरान करते रह गये
मेरी आँखो से मेरा प्रेम वर्णित हो ना जाये
तुम्हारे नाम से ये दास चर्चित हो ना जाये
हम उस देवी से मिलते है तो अक्सर सोचते है
किसी पापी को ये प्रसाद वितरित हो ना जाये
वो इस वीकेंड तक बाइक चलाना सीख लेगी
मुझे ये डर है यातायात बाधित हो ना जाये
उसे अच्छा नही लगता धुंये मे सांस लेना
हमारे वास्ते सिगरेट भी वर्जित हो ना जाये
गुलाब चाँदनी रातो पे वार आये हम
तुम्हारे हुस्न का सदका उतार आये हम
वो एक झील थी,शफाफ नीले पानी की
और उसमे डूब के खुद को निखार आये हम
तेरे ही लम्स से उनका खिराज़ मुमकिन है
तेरे बगैर जो उम्रे गुजार आये हम
फिर उस गली से गुजरना पड़ा तेरी खातिर
फिर उस गली से बहोत बेकरार आये हम
ये क्या सितम है के इस नश्श्ये मोहब्बत मे
तेरे सिवा भी किसी को पुकार आये हम
परिंदो को शज़र अच्छा लगा है
बहोत दिन बाद घर अच्छा लगा है
तेरी कुर्बत की ख्वाहिश तो नही थी
तेरा मिलना मगर अच्छा लगा है
गले मे है तेरी बांहो का घेरा
ये बाइक का सफर अच्छा लगा है
लरजते हाथो से छूना किसी को
मोहब्बत मे ये डर अच्छा लगा है
किसी ऊँचाई से गिरता हुँ जैसे
नशे का ये असर अच्छा लगा है
अब ये एलान मेरी जान विधिवत कर दो
मै तुम्हारा ही रहूँ,ऐसी वसीयत कर दो
मेरे जीवन मे किसी व्रक्ष की भांति आओ
अपने साये मे रखो और तथागत कर दो
मै जुदाई का वो क्षण हुँ,जो सदा याद रहे
अपने सीने से लगाकर मुझे अक्षत कर दो
तुम ना देखो तो यहाँ कौन मुझे देखेगा?
तुम जो चाहो मेरी आगत को अनागत कर दो
फिर चली आओ मेरे पास बिछड़ने के लिये
मन की पीड़ा को मेरी जान यथावत कर दो
गाली को प्रणाम समझना पड़ता है
मधुशाला को धाम समझना पड़ता है
आधुनिक कहलाने की अंधी जिद में
रावण को भी राम समझना पड़ता है
जब भी उसकी गली मे भ्रमण होता है
उसके द्वार पे आत्मसमर्पण होता है
अच्छे बुरे संस्कार उसे देते है हम
जन्म से तो हर बालक स्रवण होता है
किस किस से तुम दोष छुपाओगे अपने
प्रिये,अपना मन भी दर्पण होता है
हुआ ही क्या.. जो वो हमे मिला नही
बदन ही सिर्फ एक रास्ता नही
ये पहला इश्क है तुम्हारा सोच लो..
मेरे लिये ये रास्ता नया नही
मै दस्तको पे दस्तके दिये गया
वो एक दर कभी मगर खुला नही
ये बार-ए-ग़म भी उठाया नही बहुत दिन से
के उसने हमको रुलाया नही बहुत दिन से
चलो के खाक उड़ाये,चलो शराब पिये
किसी का हिज्र मनाया नही बहुत दिन से
ये खौफ है के रगो मे लहू ना जम जाये
तुम्हे गले से लगाया नही बहुत दिन से