एक मुद्दत से मेरी माँ नही सोई ‘ताबिश-ABBAS TABISH-Hamari Association Mushaira – Dubai 2012

Poetry Details:-

एक मुद्दत से मेरी माँ नही सोई ‘ताबिश-ABBAS TABISH-इस पोस्ट में ABBAS TABISH की लिखी गयी कुछ गज़ले और शायरियाँ पेश की गयी है,जोकि ABBAS TABISH के द्वारा प्रस्तुत की गयी है।माँ के बारे मे भी कही कुछ बहुत ही खुबसूरत गज़ल कही गयी है।

हँसने नही देता कभी रोने नही देता
ये दिल तो कोई काम भी होने नही देता
तुम माँग रहे हो मेरे दिल से मेरी ख्वाहिश
बच्चा तो कभी अपने खिलौने नही देता
वो कौन है?उससे तो मै वाकिफ भी नही हुं
जो मुझको किसी ओर का होने नही देता

-*-

जब इंतजार के लम्हे पिघलने लगते है
गली के लोग मेरे दिल पे चलने लगते है
मै इसलिये भी परिंदो से दूर भागता हुं
इनमे रह के मेरे पर निकलने लगते है

-*-

यहाँ के ओहद-ओ-मंसब कबूल करते हुये
मै तुझको भूल गया था,ये भूल करते हुये
अब ओर कितना जिऊ फतह की उम्मीद के साथ
थक गया हुँ मै लाशे वसूल करते हुये
जैसे आंधिया बारिश को साथ लाती है
वो रो पड़ा मुझे कदमो की धूल करते हुये
अब उसको याद भी करता हुं,पूछकर उससे
ये नौबत आयी है शर्ते कबूल करते हुये

-*-

मै इस पर सोचने बैठू,तो हैरानी नही जाती
परिंदे घर मे है और घर से वीरानी नही जाती
वो अक्सर ख्वाव मे आकर मेरी हालत पे रोती है
के ज़ेर-ए-खाक भी माँ की परेशानी नही जाती
कुला-हो-तख्त से शहजादगी बिल्कुल नही मसरूद
जब तक माँ हो जिंदा बू-ए-सुल्तानी नही जाती

-*-

गैब के बाग की खुशबू का निशा देता है
रात के पिछले पहर पेड़ अजां देता है
उसके नजदीक कहीं मर ना गया हुं मै भी
आजकल शहर मेरे हक मे बयां देता है
ऐसी नेमत पे भी करते है खुदा का शिकवा
क्या ये कम है के हम ऐसो को वो माँ देता है
दी है वैहशत तो ये वैशहत ही मुसलसल हो जाये
रक्स करते हुये एतराफ मे जंगल हो जाये
चलता रहने दो मियां सिलसिला दिलदारी का
आशिकी दीन नही है के मुकम्म्ल हो जाये
हालत-ए-हिज्र में जो रक्स नही कर सकता
उसके हक मे यही बेहतर है के पागल हो जाये
डूबती नाव मे सब चीख रहे है ‘ताबिश’
और मुझे फिक्र गज़ल मेरी मुकम्मल हो जाये

-*-

कोई टकरा के सुबुकसर भी तो हो सकता है
मेरी तामीर मे पत्थर भी तो सकता है
क्यो ना ऐ शख्स तुझे हाथ लगाकर देखू
तू मेरे वहम से बढकर भी तो सकता है
ये जो है फूल हथेली पे,इसे फूल ना जान
मेरा दिल जिस्म से बाहर भी तो हो सकता है
क्या जरूरी है के हम हार के जीते ‘ताबिश’
इश्क का खेल बराबर भी तो हो सकता है

-*-

दश्त मे प्यास बुझाते हुये मर जाते है
हम परिंदे कहीं जाते हुये मर जाते है
हम है सूखे हुये तालाब पे बैठे हुये हंस
जो ताल्लुक को निभाते हुए मर जाते है
घर पहुचता है कोई ओर हमारे जैसा
हम तेरे शहर से जाते हुये मर जाते है
उनके भी कत्ल का इल्जाम हमारे सर है
जो हमे ज़हर पिलाते हुये मर जाते है
ये मोहब्बत की कहानी नही मरती लेकिन
लोग किरदार निभाते हुये मर जाते है
हम है वो टूटी हुई कश्तियो वाले ‘ताबिश’
जो किनारो को मिलाते हुये मर जाते है

-*-

बैठता उठता था मै यारो के बीच
हो गया दीवार, दीवारो के बीच
मेरे इस कोशिश मे बाजू कट गये
चाहता था सुलह तलवारो के बीच

-*-

हमको दिल ने नही हालात ने नजदीक किया
धूप मे दूर से हर शख्स शज़र लगता है
इस जमाने मे गनीमत है,गनीमत है मिंया
कोई बाहर से भी दरवेश अगर लगता है
एक मुद्दत से मेरी माँ नही सोई ‘ताबिश’
मैने एक बार कहा था मुझे डर लगता है

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *