साल-हा-साल और इक लम्हा-Jaun Elia

Poetry Details:-

साल-हा-साल और इक लम्हा-इस पोस्ट मे Jaun Elia जी के द्वारा लिखी गयी कुछ शेर और गजले प्रस्तुत की गयी है,जो उन्ही के द्वारा पेश की गयी है ।

साल-हा-साल और इक लम्हा,कोई भी तो न इन में बल आया
ख़ुद ही इक दर पे मैं ने दस्तक दी,ख़ुद ही लड़का सा मैं निकल आया

किसी लिबास की ख़ुशबू जब उड़ के आती है
तेरे बदन की जुदाई बहुत सताती है
तेरे गुलाब तरसते है तेरी खुशबू को
तेरी सफेद चमेली तुझे बु्लाती है
तेरे बगैर मुझे चैन कैसे पड़ता है
मेरे बगैर तुझे नींद कैसे आती है

रिश्ता-ए-दिल तेरे ज़माने में
रस्म ही क्या निभानी होती

चलो बाद-ए-बहारी जा रही है
पिया-जी की सवारी जा रही है
जो इन रोज़ों मेरा ग़म है वो ये है
कि ग़म से बुर्दबारी जा रही है
है सीने में अजब इक हश्र बरपा
कि दिल से बे-क़रारी जा रही है
दिल उस के रू-ब-रू है और गुम-सुम
कोई अर्ज़ी गुज़ारी जा रही है
मैं पैहम हार कर ये सोचता हूँ
वो क्या शय है जो हारी जा रही है
वो सय्यद बच्चा हो और शैख़ के साथ
मियाँ इज़्ज़त हमारी जा रही है
है बरपा हर गली में शोर-ए-नग़्मा
मेरी फ़रियाद मारी जा रही है
है पहलू में टके की इक हसीना
तेरी फ़ुर्क़त गुज़ारी जा रही है


शर्म ,दहशत,झिझक,परेशानी नाज से काम क्यो नही लेती
आप,वो,जी मगर ये सब क्या है तुम मेरा नाम क्यो नही लेती

है मोहब्बत हयात की लज्जत, वरना कुछ लज्जते हयात नही
क्या इजाजत है एक बात कहूं,वो..मगर..खैर कोई बात नही

कभी जब मुद्दतों के बा’द उसका सामना होगा
सिवाए पास आदाब-ए-तकल्लुफ़ और क्या होगा
नवाएँ निकहतें आसूदा चेहरे दिल-नशीं रिश्ते
मगर इक शख़्स इस माहौल में क्या सोचता होगा
हमारे शौक़ के आसूदा-ओ-ख़ुश-हाल होने तक
तुम्हारे आरिज़-ओ-गेसू का सौदा हो चुका होगा
अभी इक शोर-ए-हा-ओ-हू सुना है सारबानों ने
वो पागल क़ाफ़िले की ज़िद में पीछे रह गया होगा
है निस्फ़-ए-शब वो दीवाना अभी तक घर नहीं आया
किसी से चाँदनी रातों का क़िस्सा छिड़ गया होगा

फारेहा निगारिना, तुमने मुझको लिखा है
“मेरे ख़त जला दीजे !
मुझको फ़िक्र रहती है !
आप उन्हें गँवा दीजे !
आपका कोई साथी, देख ले तो क्या होगा !
देखिये! मैं कहती हूँ ! ये बहुत बुरा होगा !”
मैं भी कुछ कहूँ तुमसे,
फारेहा निगारिना
ए बनाजुकी मीना
इत्र बेज नसरीना
रश्क-ए-सर्ब-ए-सिरमीना
मैं तुम्हारे हर ख़त को लौह-ए-दिल समझता हूँ !
लौह-ए-दिल जला दूं क्या ?
जो भी सत्र है इनकी, कहकशां है रिश्तों की
कहकशां लुटा दूँ क्या ?
जो भी हर्फ़ है इनका, नक्श-ए-जान है जनानां
नक्श-ए-जान मिटा दूँ क्या ?
है सवाद-ए-बीनाई, इनका जो भी नुक्ता है
मैं उसे गंवा दूँ क्या ?
लौह-ए-दिल जला दूँ क्या ?
कहकशां लुटा दूँ क्या ?
नक्श-ए-जान मिटा दूँ क्या ?
मुझको लिख के ख़त जानम
अपने ध्यान में शायद
ख्वाब ख्वाब ज़ज्बों के
ख्वाब ख्वाब लम्हों में
यूँ ही बेख्यालाना
जुर्म कर गयी हो तुम
और ख्याल आने पर
उस से डर गयी हो तुम
जुर्म के तसव्वुर में
गर ये ख़त लिखे तुमने
फिर तो मेरी राय में
जुर्म ही किये तुमने
जुर्म क्यूँ किये जाएँ ?
ख़त ही क्यूँ लिखे जाएँ ?

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