Poetry Details
इस पोस्ट में शिशुपाल वध का वर्णन आशूतोष जी द्वारा किया गया है जो कि सतीश सृजन जी के काव्य संकलन से ली गयी है
करके अधीन सारे राजा न चक्रवर्ती बन जाता है आयोजन करता महायज्ञ जो राज सूई कहलाता है
थी बड़ी युधिष्ठिर की इच्छा रजसुई यज्ञ करवाने की मंशा प्रचंड थी राजा में सम्राट अजय कहाने की
राजा ने ऋषि मुनियों द्वारा आयोजन भव्य कराया था नाते रिश्ते सारे राजा सबको न्योता भिजवाया था
कोई रंग खोया हो बड़ नरेश बिन माधव कोई वजूद नहीं सारे विधान फल हीन सदा यदि मधुसूदन मौजूद नहीं
यही सोच युधिष्ठिर ने भेजा पहला न्योता गिरधारी को अनुनय करके बुलवाया था बैठाया पास मुरारी को
सब राजे आए सजधज कर शिशुपाल को भी बुलवाया था श्री कृष्ण का यूं सम्मान देख वह मन ही मन गुस्सा आया था
बचपन से बैर ठान रखा शिशपाल ने श्री गोविंदा से हरि से विरोध ना हितकारी यह कौन कहे मति मंदा से
जो रीत यज्ञ की अलबली आरंभ वहां से होना था पहली पूजा पूरे मन से सर्वोच्च देव को देना था
है कौन भला सर्वोच्च यहां जिसे पहली पूजा दी जाए सहदेव कृष्ण का नाम लिया सारे के सारे हर्षाये
अनुमोदन भीष्म पितामह कर प्रस्ताव सहज स्वीकार किया सारे सहमत थे पर मन में शिशुपाल ने है प्रतिकार किया
एक शब्द न बोला निज मुख से लेकिन अंतर्मन जल भुन बैठा सबका मुख मंडल हर्षित था शिशुपाल दिखा ऐंठा ऐंठा
किया सर्व सम्मति से आरंभ कुंती सुत ने हरि की पूजा मन ही मन थे प्रसन्न बहुत माधव संग जग में ना दूजा
सारा ब्रह्मांड तरसता है नारायण आज कृपाल हुए कोई पुण्य विशेष मेरा जागा यह सोच के सभी निहाल हुए
केशव की कृपा से केशव को आचार्य कर रहे थे वंदन पंचम दशो दश की विधि से पूजा करवाते यदुनंदन
सत्कार कृष्ण का सह ना सका शिशुपाल क्रोध भर के बोला तुम सब लोगों की मत मारी गीदड़ को ना हरस तोला
बोला सहदेव तू बच्चा है सर्वोच्च की तुझे नहीं पहचान तूने अयोग्य को योग्य कहा नहीं होगा पूरा अनुष्ठान
सब मिलकर पुनः विचार करो खोजो कोई नर सम्मानी महाराज युधिष्ठिर समझाओ सहदेव बात ये बचकानी
अचरज है भीष्म पितामह जिसने अनुमोदन कर डाला इस सभा में ना कोई और मिला सर्वोच्च दिखा बस ये गवाला गंगा सुत तू हो गया वृद्ध तन मन दोनों में जान नहीं तेरा अनुमोदन दिखता है तुझ खर कोटे का बान नहीं
मुझे लगा भीष्म है ज्ञानवान लेकिन यह तो अज्ञानी है यह कृष्ण को कहता उच्च देव कैसी इसकी नादानी है
यह दुष्ट निकम्मा नाकारा काला अनपढ़ है गवार निपट वनवासी सा पहनावा है अंदर बाहर है भरा कपट
मां-बाप के इसके पता नहीं ना गोत्र वंश का लेखा है घर-घर माखन चोरी करता जाने इसमें क्या देखा है
कितने सारे निर्दोषों को चोरी से छल से मारा है सर्वोच्च इस से कभी ना मानू यह छलिया है,हत्यारा है
गोपी संग यहां वहां फिरता किन्नर बन के नाचे गाए चोरी करते पकड़ा जाता बहुदा यह ग्वाला पिट जाए
औरों के टुकड़ों पर पलता एक कोड़ी नहीं कमाता है फिरता रहता मारा मारा मंगतो सा मुरली बजाता है
रखवाली करता गायों की ब्रज गांव का है यह चरवाहा गैया दिन रात चराता है नंदलाल के घर जो हर वाहा
वृषभान लली आगे पीछे जब देखो तब मंडराता है खोटे चरित्र का चाल चलन यह बिल्कुल मुझे न भाता है
ये गीदड़ है पर चाह इसे सिंघो सी इसकी शान खिले जब है डरपोक सियारों सा तो क्यों सर्वोच्च कमान मिले
है ना अमात ना राजा है ना देव पितृ गंधर्व नहीं ना सैनिक है ना योद्धा है इसका कोई संदर्भ नहीं
गाली पर गाली उगल रहा शिशुपाल विवेक विहीन बना विपरीत बुद्धि है नाश काल बक रहा मूर्ख अपशब्द घना
संपूर्ण लोक के स्वामी को शिशुपाल नहीं पहचान सका जाने क्यों व्यर्थ उलझ बैठा ना हरि की कृपा को जान सका
कितने अनुयाई माधव के अपशब्द और अब सह ना सके दरबार छोड़कर चले गए लाचारी थी कुछ कह ना सके
अर्जुन का पारा चढ़ गया था पर तीर चढ़ा डाला कर गदा उठाए भीमसेन दौड़ा जो हाथी मतवाला
गिरधारी अब भी शीतल थे तिनका भर भी ना शोक किया फिर याद प्रतिज्ञा दिला तभी कान्हा दोनों को रोक लिया
श्री कृष्ण बताया पांडव को शिशुपाल फपरा भाई है 100 अपराधों की क्षमा ऐसे ऐसी प्रतिज्ञा खाई है
शिशपाल मृत्यु का कारण हूं ज्योतिषियों ने यह बतलाया था तब अपनी बुआ के अनुनय पर मैंने संकल्प उठाया था
कान्हा तुम होगे वचन बद्ध अर्जुन बोला कान्हा तुम होगे वचन बद्ध लेकिन मुझ पर ना पाबंदी
मेरे जीवित रहते कैसे देकर इतनी गाली गंदी हे सखा मुझे तुम आज्ञा दो
पौरुष अपना दिखलाता हूं एक सांस भी ना ले पाएगा यमलोक अभी पहुंचाता हूं
बलशाली भीम सेन बोला माधव आज्ञा की देरी है शिशुपाल मिलेगा मिट्टी में मेरी गदा की मार घनेरी है
तुम दोनों धैर्य धरो मन में यह स्वयं कर्म फल पाएगा इसका है अंत मेरे हाथों नहीं कोई विधान बचाऐगा
शिशुपाल अभी भी बोल रहा मुख से अपशब्द मुरारी को 99 अपराध हुए पूरे है शेष एक सौ गारी को
हरि सब पे रहते दयावान कोई कितना हो अत्याचारी यह सोच उसे कि सावधान शिशुपाल ना दे अगली गारी
था बुद्धिहीन ना ध्यान दिया सौंवा अपशब्द भी कह डाला फिर क्या था सौम्य गोविंदा का एक रूप दिखा बहु विकराला
शिशुपाल मृत्यु अब निश्चित थी नहीं बन सकता अब कोई ढाल अति क्रोध झलकता था मुख पर लगता आ गए है महाकाल
श्री कृष्ण कुपित होकर बोले मेरी बुआ के कारण शेष रहा
सौ गाली माफी का प्रण था लेकिन अब कुछ ना शेष रहा
प्रण हुआ पूर्ण मेरा तुझको अब कोई बचा पाएगा
तेरे अपराध ना क्षमा योग तत्काल तु मारा जाएगा
अगला अप शब्द निकलते ही तब चक्र सुदर्शन वार हुआ
था अंत लिखा हरि के हाथों से शिशुपाल संहार हुआ
ज दी नरेश हरि द्रोही था थी काल गति बन गया
अधम सौ गाली पूरी होते ही श्री कृष्ण किया शिशुपाल वधम
हरि को शिशुपाल न जान सका दुर्भाग्य से अरि समम किया काम गोविंद
के हाथों मर कर के सीधा पहुंचा गोलोक धाम