विराट जयी | VIRAT JAYI | VAISHNAVI SHARMA | SATISH SRIJAN | HINDI KAVITA

Poetry Details

इस पोस्ट में प्र्स्तुत कविता महाभारत के अर्जुन क्र्ष्ण के गीता उपदेश प्रसंग से ली गयी है ,इसे काव्य रूप में प्रस्तुत श्री सतीश स्र्जन जी ने लिखा है एवं इसे प्रस्तुत वेष्णवी शर्मा जी ने किया है

पांडव गौरव की सी में होना था शुरू संग्राम विकेट
बना धर्म क्षेत्र था कुरुक्षेत्र निज्ञान पर दोनों गए अटक
था किया प्रयास बहुत हरि ने भाई से भाई नहीं भिड़े
पर दुर्योधन के हट कारण मजबूरन पांडव युद्ध लड़े
कुल का मुखिया था अन्यायी उसे पर बेटा उदंड जना
वो छिन्न भिन्न परिवार सकल महाभारत रण मैदान बना
पांडव की और थे कृष्णा स्वयं विपरीत अक्षणी सेना थी
इस और दिवस बने गिरधारी उसे और अधर्म की रैना थी
माधव पहले ही बोले थे मैं अस्त्र शास्त्र ना चलाऊंगा
सारथी बनूं और रथ हंकू तुझे सही मार्ग दर्शाऊंगा
सारथी बने यदि युद्ध् नंदन अर्जुन को कैसी फिक्र रहे
हर बला रही कोंसो दूरी,जिस दल गोपाल का जिक्र रहे
राजाओं की सैनिक टुकड़ी गौरव पांडवों में बट गई थी
आमने सामने थे दोनों,सारी सेनाये डट गई थी
दिखता कौरव पलटा भारी एक से एक वीरों का दल था
कोई 10 हाथी कोई सौ हाथी कोई सहस्त्र हस्ती वाला बल था
द्रोणा क्रिपा संग भीष्म खड़े दुर्योधन के संग खड़ा कर्ण
जयद्रध दुशासन और शकुनि कौरव सेना का किया वरण
कई महावीर कौरव दल में,पांडव संग क्र्ष्ण तो चिंता कौन
उसे और हो कितने बलशाली,कान्हा के आगे गिनता कौन
अनुनय कर बोले पार्थ तभी माधव उसे और है अपने जन
इनसे मैं कैसे युद्ध करूं असमंजस में है मेरा मन
गंगासुत तो मेरे दादा है उंगली गह गुजरा है बचपन
मेरा रोम रोम आभारी है उनसे है पाया अपनापन
हुं अगर कुशल धनु विद्या में ये द्रोण गुरु की शिक्षा है
उनके विरुद्ध संग्राम करूं माधव ना ये मेरी इच्छा है
रही क्र्पा की क्र्पा कुल पे सदा,उनके विरुद्ध ना जंग होये
विनती है श्याम करो ऐसा ना युद्ध ठने ना मरे कोये
पूरा कुटुंब है खड़ा उधर गांडीव से नहीं प्रहार बने
है शाखा कोई पथ दिखलाओ जिससे नहीं भीषण युद्ध ठने
केशव नहीं चाहत राज्य मिले भिक्षा से जीवन जी लूंगा
ले लेने दो साम्राज्य सकल निज इच्छा से सब दे दूंगा
12 वर्षों तक वन में रहा अज्ञातवास एक साल जिया
अब नहीं है इच्छा राज्य मिले रहना साधारण मान लिया
गांडीव सरकता हाथों से तन मन जोरो से काँप रहा
ना युद्ध कदापि करूं केशव मैंने निज मन की बात कहा
स्वजनों से लड़ने से अच्छा चुल्लू भर पानी डूब मरूं
है कृष्णा घोषणा सुनो मेरी करो कोटि यतन ना युद्ध करूं
सब ध्यान से सुना मुरारी ने तब अर्जुन से माधव बोले
हे,पार्थ मेरी एक बात सुनो दिखलाओ ना खुद को युं भोले
तेरे अनुनय पर रथवान बना,जो कहता हुं वो अपनाओ
अतिरिक्त युद्ध ना मार्ग कोई,बिन लड़े लौट कर ना जाओ
छोड़ो कायरता वीर बनो,रथवान हुं मै तुम नही डरो
लौटने की राह ना शेष बची,अब गहो शस्त्र और युद्ध करो
हुई वीरगति तो स्वर्ग मिले जय पाया तो धरती का सुख
निश्चय करके गांडीव उठा बधने मरने का ना कर दुख
रण से भाग तो सुन अर्जुन जग कहे नपुंसक तुझे सदा
तज यश अपयश अपमान मान हो जाने दे जो भाग्य बधा
जो योग बनाया समय चक्र नमो निशान ना पाएंगे
जितनो के तूने नाम लिए सबके सब मारे जाएंगे
होगा विनाश पतहीन है जो,ना शिकवा कर ना कोई गिले
तू सखा मेरा सो मै चाहूं,तुझको जग में सम्मान मिले
कर्ता धर्ता मैं स्वंय एक,बड़भागी तू जो बना निमित
चल उठ निस्वार्थ समर कर तू,बस है इसमें ही तेरा हित
बहू विधि और बहू उपमानो से केशव कीरीट को समझाया
संशय मन से ना मिटा कोई अब भी था भारत घबराया
बहू प्रश्न किया जब महाबाहु तो कृष्ण ने अद्भुत बात कहीं
छोड़ो तुम माया मोह सकल अब कहता हूं एक बात सही
तू 84 के चक्कर में कितनी योनी में जन्म लिया ?
मैं परम पुरुष हरि अविनाशी ना जन्मा मारा ना भोग किया
तेरे सब जन्मो का मैं ज्ञात पर तुझे खबर ना कौन में क्या?
सो कहता जो वैसा तू कर मुझ माधव की अनुकंपा पा
सब धर्म कर्म को छोड़ पार्थ मुझ कृष्ण शरण में तू आज
मैं नष्ट करूं सब पाप तेरे मेरी बांह पकड़ मुक्ति पाजा
ना विद्युत सूर्य चंद्र तारे फिर भी मैं अखुट उजाला हूं
वहां जाकर कोई ना लौटे, मैं जहां का रहने वाला हूं
है धाम परम आनंद परम प्रकाश परम सुख है हर पल
आ शरण मेरी मेरा सेवक बन उस परम धाम को अर्जुन चल
अनहद में है अस्तित्व मेरा,मैं योम नाद में रहता हुं
त्रण त्रण कण कण में अंश मेरा सुन पार्थ सांच मैं कहता हूं
ब्रह्मांड सकल सूरज तारे सब ग्रह नक्षत्र आकाश गंग
सुर नर किन्नर गंधर्व असुर जड़ चेतन सब है मेरे अंग
मैं आदि स्वयं,मैं अंत स्वयं,में निर्माता संहारा स्वयं
मैं जन्म हूं और मरण हूं मैं मैं प्रलय में रचनाकार स्वयं
मैं जैर तथा मै उद्वज हूं मैं ही अंडज़ और मै स्वेदज
दाने मे अंकुर मैं बनता जलसागर प्राणी में मैं अज
मैं घृणा हूं खुद आकर्षण हूं मैं प्रसन्नता और शोभ हूं मैं
सतरजो तमस प्रकृति सकल और कम क्रोध मद लोभ हूं मैं
बैकुंठ में नहीं निवास मेरा ना योगी हृदय में आता हूं
मेरे भक्त जहां मेरा गान करें मैं स्वयं को वहां पता हूं
प्रेमी खातिर कुछ भी करता मेरे भक्त मेरी दुर्बलता है
उस पर यदि आए आंच कोई तब विधि विधान भी हिलता है
मै काल परे कल्पना परे,मन बुद्धि में नही आता हुं
ब्रह्मांड अखिल में ना सिमटू पर भक्त हृदय में समाता हूं
मेरे सखा मेरी अब बात सुनो तुम्हें दिव्य चक्षू पहुचांता हुं
है आज उठी इक मौज अजब,निज रूप विराट दिखाता हुं
सब छोड़ वहम और देख स्वयं मेरी उपमा है कितनी भारी
ऐसा मेरा रूप ना लक्खा कोई अब तक जन्मे जो नर नारी
इतना कहकर रथ से उतरे कौंतैय के सन्ग में गिरधारी
अर्जुन प्रसन्न और डरे भी थे पर मन में थे अति आभारी
माधव ने अपना सहज रूप फाल्गुन के आगे खड़ा किया
फिर व्रहत बताया गात प्रभु अंबर तक खुद को बड़ा किया
ये दृश्य देखते अन्य तीन हनुमान बर्बरीक और संजय
कर रही कृष्ण विस्तार रूप कर बांधने लगता धनंजय
अनगित हाथ अनगिनत चरण अगिनत रूप अनगिनत शीश
अनगिनत नेत्र और मुख अनंत धरती अंबर तक जगत ईस
अनगिनत दिव्य आभूषण मे अनगिनत दिव्य हथियार लिये
चहूं ओर महकती दिव्य गंध माधव ने अति विस्तार किये
प्रति रोम कोटि रवि का प्रकाश आभा चमके जगमग जगमग
एक दिव्य उजाला पसारा था ना दिखता सर ना दिखता पग
कौंतेय को बड़ा अचंबा था जब देखा हरि के शीश और
अरबो खरबो मुख मंडल थे ना दिखता प्रभु का और छोर
लाखों शंकर लाखों ब्रह्मा लाखों सुर और लाखों गणेश
लाखों दिखिक क्षेत्र व लोकपाल लाखों कुबेर यम और शेष
अग्नि वायु और वरूण देव लाखो रिषी मुनी लाखो मानव
लाखो किन्नर,गंदर्भ,यक्ष देवता,पित्र,लाखो दानव
विकराल रूप मुख खुला हुआ जिसमे दिखता ब्रह्मांड सकल
लाखो गंगा नव ग्रह तारे जिसे देख धनंंजय हुआ विकल
एक ओर से प्रभू में समा रहे पशू पक्षी तरू गिरी नर नारी
एक ओर से जन्मे ये सारे लीला विराट करे गिरधारी
भारत ने देखा निगल उठे कौरव पांडव के सभी वीर
जिसे देख डर गया गुडाकेश तन काँपा और मन था अधीर
स्वेध से था खुद भीग गया सब रोम पार्थ के फूल गये
भयभीत हुए इतना अर्जुन है कौन है क्या सब भूल गये
मस्तिष्क में रक्त वाहिनी अब प्रवाहित ना हो पायेगी
अर्जुन को लगता था जैसे अब ह्रदय गति थम जायेगी
ये सखा तो है ब्रह्ममांडपति जिसे मै समझा था हमजोली
थर थर थर काँप रहा अर्जुन मुख से ना निकली एक बोली
भारत कोशिश करके बोला,हे माधव केशव गोपाला
अतिशय भयभीत हु यदुनंदन प्रभू तजो रूप ये विकराला
हे आदिपुरुष,हे अधिनायक प्रभू आप ही जगत नियंता है
जग के प्रतिपालक जनक आप है सृजन आप ही हंता है
वेदों के ज्ञात आप ही हैं और आप ही हैं प्रभु परमधाम
अनगिनत रूप तेरे जग में कण-कण में बस्ता तेरा नाम
ब्रह्मा विष्णु शंकर गणेश यम अग्नि वायू चंदा रविकर
है नाथ आप ग्रह तारे हैं कोटि नमन करता किंकर
धरती अंबर तक जो कुछ भी गोविंद की सबमे प्रस्तुति है
है नमस्कार है कोटि नमन सेवक करता तेरी स्तुति है
हे दीनबंधू मोहे क्षमा करो मैने तुमको मानव जाना
हुँ पाँच तत्व का तुक्ष जीव गोविंद तुझे ना पहचाना
है मधुसूदन अब कृपा करो निज सहज रूप में आ जाओ
मेरे ज्ञान चक्षु खुला गए प्रभु है क्या आज्ञा मुझे बतलाओ
संकेत भी तेरा शिरोधार्य स्वीकारो प्रभु दासत्व मेरा
माधव अब सब कुछ आप ही हैं नहीं शेष बचा है महत्व मेरा
जो किया चिरौरी कुंतिसुत हरि विश्व रूप को समेट लिया
कर सहज रूप यशोदा नंदन कोंतैय को फिर से अभय किया

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