रंगो रस की हवस और बस-Ammar Iqbal# Nishast

Poetry Details :

Ammar Iqbal – Nishast-इस पोस्ट मे कुछ गजले और शायरियाँ पेश की गयी है जो कि Ammar Iqbal के द्वारा लिखी एवं प्रस्तुत की गयी है।

वहशत के कारखाने से ताजा गजल निकाल
ऐ सब्र के दरख्त मेरा मीठा फल निकाल

मर्तबा था मकाम था मेरा,रोशनी पर कयाम था मेरा
मै ही पहले भेजा गया था पहले भी,तब कोई और नाम था मेरा
आखिरी वक्त आँख खुल गयी थी वरना किस्सा तमाम था मेरा

आख रस पाक हो गया किस्सा,खाक था खाक हो गया किस्सा
खा रहा है जने हुये अपने कितना सफ्फाक हो गया किस्सा
अब बचा हुँ मै आखिरी किरदार अब खतरनाक हो गया किस्सा

इसी फकीर की गफलत से आग ही ली है
मेरे चिराग से सूरज ने रोशनी ली है
गली गली मे भटकता है शोर करता हुआ
हमारे इश्क ने सस्ती शराब पीली है

मुझसे निकल के मेरे किसी आईने मे आ
ऐ रब्बे खुश जमाल कभी राबते मे आ
तुझसे गुजर के अपनी खबर लेनी है मुझे
दीवारे जिस्मो जान मेरे रास्ते मे आ
यक बारगी जो फिर गयी नजरे तो फिर गयी
अब चाहे किसी ख्वाव मे या फिर रतजगे मे आ
सब तोड ताड तुझसे कड़ी जोड़ लूंगा मै
इक बार मेरे पास किसी सिलसिले मे आ
हल हो गया ना मुझमे हमेशा के वास्ते
किसने कहा था तुझसे मुझ मस्सले मे आ
रखे तुझे हथेली पे कब तक संभाल के
चल लशके नामुराद निकल आबले मे आ
फिर देखता हुँ कैसे निकलते है तेरे बल
अब मार इस बदन से निकल कर खुले मे आ

जी मै खुश हुँ कहना है और कहते ही रहना है
सोचा और सर पीट लिया,कल भी जिंदा रहना है
मैने कपड़े बदले है तुमने चेहरा पहना है

दिल से उतरे तो शान से उतरे,जैसे हम आसमान से उतरे
घात मै भी लगाये बैठा हुँ,कब शिकारी मचान से उतरे
बातो बातो मे रात कट जाये,एक बाली ना कान से उतरे

एक ये जुर्म भी मैने किया था,मै तेरे बाद भी कुछ दिन जिया था
नदी का जायका ये कह रहा है,दरिंदे ने यही पानी पिया था

हमारी प्यास को लग जाये दाग पानी का
ठिकाने आयेगा तब ही दिमाग पानी का
तुम्हारे जाते ही आँखो को ऐसा दश्त किया
किसी को मिलता नही है सुराग पानी का
दिखा के आखिरे शब एक आन मे तुफान
हवा की हो के रही लौ चिराग पानी का

नजर से तुमको मिले ना कोई सुराग दिल का
झुका के गर्दन बुझा लिया है चिराग दिल का
सुनु ना कैसे करू ना क्यु कर मै अपने दिल की
मेरे अलावा है कौन इस बद दिमाग दिल का

जो मेरे जात के मुनाफी है,मेरी तस्दीक को वो काफी है
काम शायद तुम्हारे आ जाये,हम जो अपने लिये इजाफी है

अक्स कितने उतर गये मुझमे,फिर ना जाने किधर गये मुझमे
मैने चाहा था जख्म भर जाये,जख्म ही जख्म भर गये मुझमे
ये जो मै हुँ जरा सा बाकि हुँ,वो जो तुम थे मर गये मुझमे
मेरे अंदर थी ऐसी तारीकी,आके आसेब डर गये मुझमे

रंगो रस की हवस और बस मस्सला दस तरस और बस
यु बुनी है रगे जिस्म की ,एक नस टस से मस और बस
उस मुसब्बिर का हर शाहकार साठ पैसठ बरस और बस
क्या है माबेन सैयाद ओ सैद एक चाके कफस और बस

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