ये बार-ए-ग़म भी उठाया नही बहुत दिन से-Azhar Iqbal- Deccan Literature Festival Mushaira 2020

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ये बार-ए-ग़म भी उठाया नही बहुत दिन से-Azhar Iqba- Deccan Literature Festival Mushaira 2020इस पोस्ट में कुछ कविताये और गज़ल पेश की गयी है वो Azhar Iqbal के द्वारा लिखी और प्रस्तुत की गयी है ।

गाली को प्रणाम समझना पड़ता है
मधुशाला को धाम समझना पड़ता है
आधुनिक कहलाने की अंधी जिद में
रावण को भी राम समझना पड़ता है

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हो गया आपका आगमन नींद में
छू के गुजरी जो मुझको पवन नींद में
मुझको फूलो की वर्षा मे नहला गया
मुस्कुराता हुआ एक गगन नींद में
कैसे उद्धार होगा मेरे देश का ?
लोग करते है चिंतन मनन नींद में

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इतना संगीन पाप कौन करे ?
मेरे दुख पर विलाप कौन करे?
चेतना मर चुकी है लोगो की?
पाप पर पश्चाताप कौन करे?

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जब भी उसकी गली मे भ्रमण होता है
उसके द्वार पे आत्मसमर्पण होता है
किस किस से तुम दोष छुपाओगे अपने
प्रिये,अपना मन भी दर्पण होता है
वो एक पक्षी जो गुंजन कर रहा है
वो मुझ मे प्रेम स्रजन कर रहा है
बहुत दिन हो गये है तुम से बिछड़े
तुम्हे मिलने को अब मन कर रहा है
नदी के शांत तट पर बैठ कर मन
तेरी यादे विसर्जन कर रहा है


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हुआ ही क्या.. जो वो हमे मिला नही
बदन ही सिर्फ एक रास्ता नही
ये पहला इश्क है तुम्हारा सोच लो..
मेरे लिये ये रास्ता नया नही
मै दस्तको पे दस्तके दिये गया
वो एक दर कभी मगर खुला नही

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दरख्तो से था इक रिशता हमारा
जमीं उनकी थी और साया हमारा
कोई तो पांव की जंजीर बनता
कोई तो रोकता रस्ता हमारा
ताल्लुक झू्ठ की बुनियाद पर था
मगर वो इश्क था,सच्चा हमारा
अचानक मर गया किरदार कोई
अधुरा रह गया किस्सा हमारा
खड़े है मुठ्ठियो मे रेत लेकर
हुआ करता था इक दरिया हमारा

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ये बार-ए-ग़म भी उठाया नही बहुत दिन से
के उसने हमको रुलाया नही बहुत दिन से
चलो के खाक उड़ाये,चलो शराब पिये
किसी का हिज्र मनाया नही बहुत दिन से
ये कैफियत है मेरी जान अब तुम्हे खो कर
हमने खुद को भी पाया नही बहुत दिन से
हर एक शख्स यहाँ महवे ख्वाब लगता है
किसी ने हमको जगाया नही बहुत दिन से
ये खौफ है के रगो मे लहू ना जम जाये
तुम्हे गले से लगाया नही बहुत दिन से

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