Poetry Details:-
याचना नही अब रण होगा-ये वीर रस की अतिसुंदर कविता को लिखा है Ramdhari Singh Dinkar ने जो कि ली गयी है उन्ही के कविता संग्रह Rashmirathi से,इस कविता मे उस द्रश्य का वर्णन किया है जब प्रभू श्री क्रष्ण पांडवो का शांति संदेश लेकर कौरवो की सभा में जाते है। इस कविता को प्रस्तुत किया है Manoj Muntashir जी ने।
हो गया पूर्ण अग्यातवास,पांडव वन से लौटे सहास
पावक मे कनक सद्रश तप कर,वीरत्व लिये कुछ और प्रखर
नस नस मे तेज प्रवाह लिये,कुछ और नया उत्साह लिये
सच है,विपत्ति जब आती है ,कायर को ही दहलाती है
शूरमा नही विचलित होते,क्षण एक नही धीरज खोते
विघ्नो को गले लगाते है,काँटो मे राह बनाते है
मुख से ना कभी उफ कहते है,संकट का चरणना गहते है
जो आ पड़ता सब सहते है ,उद्योग निरत नित रहते है
शूलो का मूल नसाने को ,बढ खुद विपत्ति पर छाने को
है कौन विघ्न ऐसा जग में,टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोक ठेलता है जब नर,पर्वत के जाते पांव उखड़
मानव जब जोर लगाता है ,पत्थर पानी बन जाता है
गुण बड़े एक से एक प्रखर,हैं छिपे मानवो के भीतर
मेंहदी मे जैसे लाली हो,वर्तिका बीच उजियाली हो
बत्ती जो नही जलाता है,रोशनी नही वो पाता है
पीसा जाता जब इक्षु दंड,झरती रस की धारा अखंड
मेंहदी जब सहती है प्रहार,बनती ललनाओ का सिंगार
जब फूल पिरोये जाते है ,हम उनको गले लगाते है
वसुधा का नेता कौन हुआ?,भुखंड विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?,नव धर्म प्रणेता कौन हुआ?
जिसने ना कभी आराम किया,विघ्नो मे रह कर नाम किया
जब विघ्न सामने आते है,सोते से हमे जगाते है
मन को मरोड़ते है पल पल,तन को झंझोड़ते है पल पल
सत्पथ की ओर लगाकर ही,जाते है हमे जगाकर ही
वाटिका और वन एक नही,आराम और रण एक नही
वर्षा,अंधड़,आतप अखंड,पौरुष के है साधन प्रचंड
वन मे प्रसून तो खिलते है,बागो मे शाल ना मिलते है
कंकरिया जिनकी सेज सुघर,छाया देता केवल अंबर
विपदाए दूध पिलाती है ,लोरी आंधियाँ सुनाती है
जो लाक्षा ग्रह मे जलते है,वे ही सूरमा निकलते है
बढकर विपत्तियो पर छा जा,मेरे किशोर मेरे ताजा
जीवन का रस छन जाने दे,तन को पत्थ्र बन जाने दे
तू स्वयं तेज भयकारी है,क्या कर सकती चिंगारी है
वर्षो तक वन मे घूम घूम,बाधा विघ्नो को चूम चूम
सह धूप घाम पानी पत्थर,पांडव आये कुछ और निखर
सौभाग्य ना सब दिन सोता है ,देखें आगे क्या होता है
मैत्री की राह बताने को,सबको सुमार्ग पर लाने को
दुर्योधन को समझाने को,भीषण विध्वंस बचाने को
भगवान हस्तिनापुर आये,पांडव का संदेशा लाये
दो न्याय अगर तो आधा दो,पर इसमे भी यदि बाधा हो
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,रक्खो अपनी धरती तमाम
हम वही खुशी से खायेंगे,परिजन पर असि ना उठाऐंगे
दुर्योधन वह भी दे ना सका,आशिष समाज की लेना सका
उलटे हरि को बाँधने चला,जो था असाध्य साधने चला
जब नाश मनुज पर छाता है,पहले विवेक मर जाता है
हरि ने भीषण हुंकार किया,अपना स्वरूप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले,भगवान कुपित होकर बोले
जंजीर बढाकर साध मुझे,हाँ हाँ दुर्योधन बाँध मुझे
यह देख गगन मुझमे लय है,यह देख पवन मुझमे लय है
मुझमे विलीन झंकार सकल,मुझमे लय है संसार सकल
अमरत्व फूलता है मुझमे,संहार झूलता है मुझमे
उदयाचल मेरा दिप्तीभाल,भूमंडल वक्षस्थल विशाल
भुज परिधि बंध को घेरे है,मैनाक मेरू पग मेरे है
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,सब है मेरे मुख के अंदर
द्रग हो तो द्रश्य अकांड देख,मुझमे सारा ब्रहमांड देख
चर अचर जीव,जग क्षर-अक्षर,नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर
शत कोटि सूर्य,शत कोटि चंद्र,शत कोटि सरित सर सिन्धु मद्र
शत कोटि विष्णू,ब्रह्मा,महेश,शत कोटि विष्णू जलपति धनेश
शत कोटि रुद्र,शत कोटि काल,शत कोटि दंडधर लोकपाल
जंजीर बढाकर साध इन्हे,हाँ हाँ दुर्योधन बाँध इन्हे
भुलोक अतल पाताल देख,गत और अनागत काल देख
यह देख जगत का आदि-स्रजन,यह देख महाभारत का रण
म्रतको से पटी हुयी भू है,पहचान कहाँ इसमे तू है
अंबर मे कुंतल जाल देख,पद के नीचे पाताल देख
मुठ्ठी मे तीनो काल देख,मेरा स्वरूप विकराल देख
सब जन्म मुझ ही से पाते है,फिर लौट मुझ ही मे आते है
जिह्वा से कढती ज्वाल सघन,साँसो मे पाता जन्म पवन
पड़ जाती मेरी द्रष्टि जिधर,हँसने लगती है स्रष्टि उधर
मै जब ही मुंदता हुं लोचन,छा जाता चारो ओर मरण
बाँधने मुझे तो आया है,जंजीर बढी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,पहले तो बाँध अनंत गगन
सूने को साध ना सकता है,वो मुझे बाँध कब सकता है ?
हित वचन नही तूने माना,मैत्री का मुल्य ना पहचाना
तो ले,मै भी अब जाता हुँ,अंतिम संकल्प सुनाता हुँ
याचना नही अब रण होगा,जीवन जय या की मरण होगा
टकरायेगे नक्षत्र निकर,बरसेगी भू पर वन्हि प्रखर
फण शेषनाग का डोलेगा,विकराल काल मुख खोलेगा
दुर्योधन !रण ऐसा होगा,फिर कभी नही जैसा होगा
भाई पर भाई टूटेगे,विष वाण बूँद से छुटेंगे
वायस श्रगाल सुख लूटेंगे,सौभाग्य मनुज के फूटेंगे
आखिर तू भू शायी होगा,हिंसा का परदायी होगा
थी सभा सन्न सब लोग डरे,चुप थे या थे बेहोश पडे
केवल दो नर ना अघाते थे,ध्तराष्ट्र विदुर सुख पाते थे
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,निर्भय,दोनो पुकारते थे जय जय