Lahore Mushaira Az Rah-E-Sukhan – Tahzeeb Hafi इस पोस्ट में TEHZEEB HAFI की लिखी गयी कुछ नई नज्मे पेश की गयी है और नज़्म “एक सहेली की नसीहत” पेश की गयी है ,जोकि TEHZEEB HAFI के द्वारा प्रस्तुत की गयी है।
तू किसी ओर ही दुनिया मे मिली थी मुझ से
तू किसी ओर ही मौसम की महक लायी थी
डर रहा था कि कहीं जख्म ना भर जाये मेरे
और तू मुठ्ठीयाँ भर भर के नमक लायी थी
और ही तरह की आँखे थी तेरे चेहरे पर
तू किसी ओर सितारे से चमक लायी थी
तेरी आवाज ही सब कुछ थी मुझे मुन्सेजां
क्या करु मै के तू बोली ही बहुत कम मुझसे
तेरी चुप से ही यही महसूस किया था मैने
जीत जायेगा तेरा ग़म किसी रोज मुझसे
शहर आवाजे लगाता था मगर तू चुप थी
ये ताल्लुक मुझे खाता था मगर तू चुप थी
वही अंजाम था जो इश्क का आगाज से है
तुझको पाया भी नही था के तुझे खोना था
चली आती है यही रस्म कई सदियो से
यही होता है ,यही होगा,यही होना था
पूछता रहता था तुझसे के “बता क्या दुख है?”
और मेरी आँख में आँसू भी नही होते थे
मैने अंदाजे लगाये के सबब क्या होगा
पर मेरे तीर तराजू भी नही होते थे
जिसका डर था मुझे मालूम पड़ा लोगो से
फिर वो खुशवख्त पलट आया तेरी दुनिया में
जिसके जाने पे मुझे तुने जगह दी दिल मे
मेरी किस्मत मे ही जब खाली जगह लिखी थी
तुझसे शिकवा भी अगर करता तो कैसे करता
मै वो सब्जा था जिसे रोंद दिया जाता है
मै वो जंगल था जिसे काट दिया जाता है
मै वो दर्द था जिसे दस्तक की कमी खाती है
मै वो मंजिल था जहाँ टूटी सड़क जाती है
मै वो घर था जिसे आबाद नही करता कोई
मै तो वो था,जिसे याद नही करता कोई
खैर,इस बात को तू छोड,बता कैसी है?
तूने चाहा था जिसे,वो तेरे नजदीक तो है?
कौन से ग़म ने तुझे चाट लिया अंदर से
आज कल फिर से तू चुप रहती है,सब ठीक तो है?
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हम मिलेंगे कही,अजनबी शहर की ख्वाब होती हुई शाहाराओ पे और शाहाराओ पे फैली हुई धूप में
एक दिन हम कहीं साथ होगे वक्त की आंधियो से अटी साहतो पर से मट्टी हटाते हुये,एक ही जैसे आँसू बहाते हुये
हम मिलेंगे घने जंगलो की हरी घास पर और किसी शाखे नाजुक पर पड़ते हुये बोझ की दास्तानो मे खो जायेगे
हम सनोबर के पेड़ो की नोकीले पत्तो से सदियो से खोये हुये देवताओ की आँखे चभो जायेंगे
हम मिलेंगे कही बर्फ के वादियो मे घिरे पर्वतो पर,बांझ कब्रो मे लेटे हुये कोह पेमाओ की याद में नज्म कहते हुये
जो पहाड़ो की औलाद थे,और उन्हे वक्त आने पर माँ बाप ने अपनी आगोश मे ले लिया
हम मिलेंगे कही शाह सुलेमान के उर्स मे हौज़ की सीढियो पर वज़ू करने वालो के श्फ़ाक चेहरो के आगे
संगेमरमर से आरस्ता फर्श पर पैर रखते हुये,आह भरते हुये और दरख्तो को मन्नत के धागो से आजाद करते हुये हम मिलेंगे
हम मिलेंगे कही नारमेंडी के साहिल पे आते हुये अपने गुम गश्तरश्तो की खाके सफर से अटी वर्दियो के निशां देख कर
मराकिश से पलटे हुये एक जर्नेल की आखिरी बात पर मुस्कुराते हुये,इक जहाँ जंग की चोट खाते हुये हम मिलेंगे
हम मिलेंगे कही रूस की दास्ताओ की झूठी कहानी पे आखो मे हैरत सजाये हुये,शाम लेबनान बेरूत की नरगिसी चश्मूरो की आमद के
नोहू पे हँसते हुये,खूनी कज़ियो से मफलूह जलबानियाँ के पहाड़ी इलाको मे मेहमान बन कर मिलेंगे
हम मिलेंगे एक मुर्दा जमाने की खुश रंग तहज़ीब मे ज़स्ब होने के इमकान मे,इक पुरानी इमारत के पहलू मे उजड़े हुये लाँन में
और अपने असीरो की राह देखते पाँच सदियो से वीरान जिंदान मे
हम मिलेंगे तमन्नाओ की छतरियो के तले ,ख्वाहिशो की हवाओ के बेबाक बोसो से छलनी बदन सौंपने ले लिये रास्तो को
हम मिलेंगे जमीं से नमूदार होते हुये आठवें बर्रे आज़म में उड़ते हुये कालीन पर
हम मिलेंगे किसी बार में अपनी बकाया बची उम्र की पायमाली के जाम हाथ मे लेंगे और एक ही घूंट में हम ये सैयाल अंदर उतारेंगे
और होश आने तलक गीत गायेंगे बचपन के किस्से सुनाता हुआ गीत जो आज भी हमको अज़बर है बेड़ी बे बेड़ी तू ठिलदी तपईये पते पार क्या है पते पार क्या है?
हम मिलेंगे बाग मे ,गांव मे ,घूप में, छांव में, रेत मे, दश्त में, शहर मे,मस्जिदो में,कलीसो में,मंदर मे ,मेहराब मे, चर्च में,मूसलाधार बारिश मे
बाजार मे,ख्वाब मे,आग मे,गहरे पानी में,गलियो मे ,जंगल में और आसमानो मे
कोनो मकां से परे गैर आबद सैयाराए आरजू मे सदियो से खाली पड़ी बेंच पर
जहा मौत भी हम से दस्तो गरेबां होगी,तो बस एक दो दिन की मेहमान होगी
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सुबह रोशन थी और गर्मियो के थका देने वाले दिनो मे सारी दुनिया से आजाद हम मछलियो की तरह मैली नेहरो मे गोते लगाते
अपने चेहरे पे कीचड़ लगा कर डराते थे एक दूसरे को किनारो पे बैठे हुये हमने जो अहद एक दूसरे से लिये थे
उसके धुंधले से नक्शे आज भी मेरे दिल पर कही नक्श है खुदा रोज सूरज को तैयार करके हमारी तरफ भेजता था
और हम साया एक कुफ्र मे एक दूजे के चेहरे की ताबिंदगी की दुआ मांगते थे
उसका चेहरा कभी मेरी आँखो से ओझल नही हो सका,उसका चेहरा अगर मेरी आँखो से हटता तो मै कायनातो मे फैले हुये
उन मज़ाहिर की तफीम नज़्मो मे करता,के जिस पर बजिद ने ये बीमार जिन्न को खुद अपनी तमन्नो की आत्माओ ने
इतना डराया के इनको हवस के कफ़स मे मोहब्बत की किरणो ने छूने की कोशिश भी की तो ये उससे परे हो गये
इनके बस मे नही के ये महसूस करते इक मोहब्बत भरे हाथ का लंम्स,जिससे इन्कार कर करके इनके बदन खुरदरे हो गये
एक दिन जो खुदा और मोहब्बत की इक किस्त को अगले दिन पर नही टाल सकते,खुदा और मोहब्बत पे रायज़नी करते थकते नही
और इस पर भी ये चाहते है कि मै इनकी मर्जी की नज़्मे कहूं जिनमे इनकी तशफी का सामान हो,आदमी पढके हैरान हो
जिसको ये इल्म कहते है,उस इल्म की बात हो,फलसफां,दीन,तारीख,साय,समाज,अकीदा,जबाने,माशी मशावात,इंसान के रंगो आदातो अतवार,ईजाद तकलीद,अम्ल इंतशार,नैनन की अज़मद के किस्से,खितरी बलाओ से और देवताओ से जंग,सुलह नामा लिये तेज रफ्तार
घोड़ो पे सहमे सिपाही ,नजरियाये समावात के काट ने क्या कहा ?और उसके जुराबो के फीतो की डिब्बीया,किमीया के खजानो का मुह खोलने
वाला बाबल कौन था जिसने पारे को पत्थर में ढाला और हरशल की आँखे जो बस आसमानो पे रहती ,क्या वो इग्लेंड का मोसिन नही
समंदर की तक्सीर और एटलांटिक पे आबादीया,मछलियाँ कश्तियो जैसी क्यो है ?और राफेल के हाथ पर मट्टी कैसे लगी? ये सवाल
और ये सारी बाते मेरे किस काम की पिछले दस साल से उसकी आवाज तक मै नही सुन सका,और ये पूछते है के हेगल के नजदीक तारीख क्या है ?
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तुम अकेली नही हो सहेली जिसे अपने वीरान घर को सजाना था
और एक शायर के लफ्जो को सच मान कर उसकी पूजा मे दिन काटने थे
तुम से पहले भी ऐसा ही एक ख्वाब झूठी तस्सली मे जां दे चुका है
तुम्हे भी वो एक दिन कहेगा के वो तुम से पहले किसी को जबां दे चुका है
वो तो शायर है,और साफ ज़ाहिर है,शायर हवा की हथेली पे लिखी हुई
वो पहेली है जिसने अबध और अज़ल के दरीचो को उलझा दिया है
वो तो शायर है,शायर तमन्ना के सेहरा मे रम करने वाला हिरन है
शोब्दा शास सुबहो की पहली किरन है,अदब गाहे उलफ्त का मेमार है
और खुद अपने खवावो का गद्दार है,
वो तो शायर है,शायर को बस फिक्र लोह कलम है,उसे कोई दुख है
किसी का ना गम है,वो तो शायर है,शायर को क्या खौफ मरने से?
शायर तो खुद शाह सवार-ए- अज़ल है,उसे किस तरह टाल सकता है कोई
के वो तो अटल है,मै उसे जानती हुँ सहेली ,वो समंदर की वो लहर है
जो किनारो से वापस पलटते हुये
मेरी खुरदरी एडियो पे लगी रेत भी और मुझे भी बहा ले गया
वो मेरे जंगलो के दरख्तो पे बैठी हुयी शहद की मक्खियाँ भी उड़ा ले गया
उसने मेरे बदन को छुआ और मेरी हडडियो से वो नज्मे कसीदी
जिन्हे पढ के मै काँप उठती हुँ और सोचती हुँ के ये मसला दिलबरी का नही
खुदा की कसम खा के कहती हुँ,वो जो भी कहता रहे वो किसी का नही
सहेली मेरी बात मानो,तुम उसे जानती ही नही,वो खुदा ए सिपाहे सुखन है
और तुम एक पत्थर पे नाखुन से लिखी हुई,उसी की ही एक नज़्म हो