अर्जुन के जैसा वीर यहाँ-arjun ke jaisa veer yahaa-Amit Sharma

Poetry Details:-

अर्जुन के जैसा वीर यहाँ-arjun ke jaisa veer yahaa-इस पोस्ट के जो कविता पेश की गयी है उसे Amit Sharma जी ने लिखा एवं प्रस्तुत किया है,इस कविता मे महाभारत के युद्ध से पहले श्री क्रष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद अत्यंत रोचक ढंग से पेश किया गया है।

तलवार,धनुष और पैदल सैनिक कुरुक्षेत्र मे खड़े हुये
रक्त पिपासू महारथी इक दूजे सम्मुख अड़े हुये
कई लाख सेना के सम्मुख पांडव पाँच बिचारे थे
एक तरफ थे योद्धा सब ,एक तरफ समय के मारे थे
महा समर की प्रतिक्षा में सारे ताक रहे थे जी
और पार्थ के रथ को केशव स्वयं हाँक रहे थे जी
रणभुमि के सभी नजारे देखन मे कुछ खास लगे
माधव ने अर्जुन को देखा,अर्जुन उन्हे उदास लगे
कुरुक्षेत्र का महा समर एक पल मे तभी सजा डाला
पाचजण्य उठा क्रष्ण ने मुख से लगा बजा डाला
हुआ शंखनाद जैसे ही सबका गर्जन शुरु हुआ
रक्त बिखरना हुआ शुरु और सबका मर्दन शुरु हुआ
कहा क्रष्ण ने उठ पार्थ और एक आँख को मीच जरा
गाण्डिव पर रख बाणो को प्रत्यंचा को खींच जरा
आज दिखा दे रणभुमि मे योद्धा की तासीर यहाँ
इस धरती पर कोई नही,अर्जुन के जैसा वीर यहाँ
सुनी बात माधव की तो अर्जुन का चेहरा उतर गया
एक धनुर्धारी की विद्या मानो चुहा कुतर गया
बोले पार्थ सुनो कान्हा जितने ये सम्मुख खड़े हुये है
हम तो इन से सीख सीख कर सारे भाई बड़े हुये है
इधर खड़े बाबा भिष्म ने मुझको गोद खिलाया है
गुरु द्रोण ने धनुष बाण का सारा ग्यान सिखाया है
सभी भाई पर प्यार लुटाया कुंती मात हमारी ने
कमी कोई नही छोड़ी थी,प्रभू माता गांधारी ने
ये जितने गुरुजन खड़े हुये है सभी पूजने लायक है
माना दुर्योधन दुसासन थोड़े से नालायक है
मै अपराध क्षमा करता हुँ बेशक हम ही छोटे है
ये जैसे भी है आखिर माधव,सब ताऊ के बेटे है
छोटे से भू भाग की खातिर हिंसक नही बनुंगा मै
स्वर्ण ताक कर अपने कुल का विध्वंसक नही बनुंगा मै
खून सने हाथो को होता,राज भोग अधिकार नही
परिवार मार कर गद्दी मिले तो सिंहासन स्वीकार नही
रथ पर बैठ गया अर्जुन मुह माधव से मोड़ दिया
आँखो मे आँसू भर कर गाण्डिव हाथ से छोड़ दिया
गाण्डिव हाथ से जब छुटा माधव भी कुछ अकुलाए थे
शिष्य पार्थ पर गर्व हुआ मन ही मन हर्षाए थे
मन मे सोच लिया अर्जुन की बुद्धि ना सटने दूंगा
समर भुमि मे पार्थ को कमजोर नही पड़ाने दूंगा
धर्म बचाने की खातिर इक नव अभियान शुरु हुआ
उसके बाद जगत गुरु का गीता ग्यान शुरु हुआ
एक नजर में रणभूमि के कण कण डोल गये माधव
टक टकी बांधकर देखा अर्जुन एकदम बोल गये माधव
पार्थ मुझे पहले बतलाते मै संवाद नही करता
तुम सारे भाईयो की खातिर कोई विवाद नही करता
पांचाली के तन पर लिपटी साड़ी खींच रहे थे वो
दोषी वो भी उतने ही है जबड़ा भींच रहे थे जो
घर की इज्जत तड़प रही कोई दो टूक नही बोले
पौत्र बहू को नग्न देखकर गंगा पुत्र नही खौले
तुम कायर बन कर बैठे हो ये पार्थ बडी बेशर्मी है
संबंध उन्ही से निभा रहे जो लोग यहाँ अधर्मी है
हे पांडू के पुत्र ! धरम का कैसा कर्ज उतारा है
शोले होने थे आँखो में पर बहती जल धारा है
गाण्डिव उठाने मे पार्थ जितनी भी देर यहाँ होगी
इंद्रप्रस्थ के राज भवन मे उतनी अंधेर वहाँ होगी
अधर्म धर्म की गहराई मे खुद को नाप रहा अर्जुन
अश्रूधार फिर तेज हुई और थर थर काँप रहा अर्जुन
हे पार्थ ! मुझे बतलाओ कुल नाशक कैसे बन जाँऊ
रख सिंहासन लाशो पर मै,शासक कैसे बन जाँऊ
कैसे उठेंगे कर उन पर जो कर पर अधर लगाते है
करने को जिनका स्वागत ये कर भी स्वयं जुड़ जाते है
इन्ही करो ने बाल्य काल मे सबके पैर दबाये है
इन्ही करो को पकड़ करो मे पितमह मुस्काये है
अपनी बाणो की नोंक जो इनकी ओर करुंगा मै
केशव मुझको म्रत्यु दे दो उससे पूर्व मरुंगा मै
बाद युद्ध के मुझे ना कुछ भी पास दिखाई देता है
माधव ! इस रणभूमि मे,बस नाश दिखाई देता है
बात बहुत भावुक थी किंतु जगत गुरु मुस्काते थे
और ग्यान की गंगा निरंतर चक्रधारी बरसाते थे
जन्म मरण की यहाँ योद्धा बिल्कुल चाह नही करते
क्या होगा अंजाम युद्ध का ये परवाह नही करते
पार्थ ! यहाँ कुछ मत सोचो बस करम मे ध्यान लगाओ तुम
बाद युद्ध के क्या होगा ये मत अनुमान लगाओ तुम
इस दुनिया के रक्तपात मे कोई तो अहसास नही
निज जीवन का करे फैसला नर के बस की बात नही
तुम ना जीवन देने वाले नही मारने वाले हो
ना जीत तुम्हारे हाथो मे तुम नही हारने वाले हो
ये जीवन दीपक की भांति,युं ही चलता रहता है
पवन वेग से बुझ जाता है,वरना जलता रहता है
मानव वश मे शेष नही कुछ,फिर भी मानव डरता है
वह मर कर भी अमर हुआ,जो धरम की खातिर मरता है
ना सत्ता सुख से होता है ना सम्मानो से होता है
जीवन का सार सफल केवल बस बलिदानो से होता है
देह दान योद्धा ही करते है,ना कोई दूजा जाता है
रणभूमि मे वीर मरे तो शव भी पूजा जाता है
योद्धा की प्रव्रत्ति जैसे खोटे शस्त्र बदलती है
वैसे मानव की दिव्य आत्मा दैहिक वस्त्र बदलती है
ये मान और सम्मान बताओ जीवन के अपमान बताओ
जीवन म्रत्यु क्या है माधव?रण मे जीवन दान बताओ
काम,क्रोध की बात कही मुझको उत्तम काम बताओ
अरे खुद को ईशवर कहते हो तो जल्दी अपना नाम बताओ
इतना सुनते ही माधव का धीरज पूरा डोल गया
तीन लोक का स्वामी फिर बेहद गुस्से मे बोल गया
अरे कान खोल कर सुनो पार्थ मै ही त्रेता का राम हुँ
क्रष्ण मुझे सब कहता है,मै द्वापर का घनशयाम हुँ
रुप कभी नारी का रखकर मै ही केश बदलता हुँ
धरम बचाने की खातिर,मै अनगिन वेष बदलता हुँ
विष्णू जी का दशम रुप मै परशुराम मतवाला हुँ
नाग कालिया के फन पे मै मर्दन करने वाला हुँ
बाँकासुर और महिसासुर को मैने जिंदा गाड़ दिया
नरसिंह बन कर धर्म की खातिर हिरण्यकश्यप फाड़ दिया
रथ नही कही भी चलता है बस मै ही आगे बढता हुँ
गाण्डिव हाथ मे तेरे है,पर रणभुमि मे मै लड़ता हुँ
जैसे ही मेरे माधव का कद थोड़ सा बड़ा हुआ
सहमा सहमा सा था अर्जुन एक दम रथ से खड़ा हुआ
माँ गीता के ग्यान से सीधे ह्रदय पर प्रहार हुआ
म्रत्यु के आलिंगन हेतु फिर अर्जुन तैयार हुआ
जितने यहाँ अधर्मी है चुन चुनकर उन्हे सजा दुंगा
इतना रक्त बहाऊंगा धरती की प्यास बुझा दुंगा
जिधर चले बाण पार्थ के सब पीछे हट जाते थे
रण्भुमि के कोने कोने लाशो से पट जाते थे
धरमराज के शीश के ऊपर राज मुकुट की छाया थी
पर सारी दुनिया जानती थी ये बस केशव की माया थी
धरम किया स्थापित जिसने दाता दया निधान की जय
हाथ उठा कर सारे बोलो चक्रधारी भगवान की जय

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