अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे -Ahmad Faraz

अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे -इस पोस्ट में Ahmad Faraz जी के द्वारा लिखी गयी कुछ गज़ले और शायरियाँ उन्ही के पेश की गयी है।

जान से इश्क़ और जहाँ से गुरेज़
दोस्तों ने किया कहाँ से गुरेज़
इब्तिदा की तेरे क़सीदे से
अब ये मुश्किल करूँ कहाँ से गुरेज़
मैं वहाँ हूँ जहाँ जहाँ तुम हो
तुम करोगे कहाँ कहाँ से गुरेज़
कर गया मेरे तेरे क़िस्से में
दास्ताँ-गो यहाँ वहाँ से गुरेज़


इतना सन्नाटा के जैसे हो सूकूत-ए-सेहरा
ऐसी तारीकी के आँखो ने दुहाई दी है
दर-ए-दिंदा से परे कौन से मंज़र होंगे
मुझको दीवार ही दीवार दिखाई दी है
दूर एक फाख्ता बोली है सरे शाख-ए-सजर
पहली आवाज मोहब्बत की सुनाई दी है


वही इश्क जो था कभी जुनूँ उसे रोजगार बना दिया,
कहीं ज़ख्म बेच के आ गए कहीं शेर कोई सुना दिया
कभी किस्सा तेरे विसाल का जो किसी से कहना ना चाहिए
कभी दाग तेरे फिराक का सरे अंजुमन ही दिखा दिया
वोहि हम जिनको अजीज़ थी दुर-ए-आबरू की चमक दमक


मैं तो मक़्तल में भी क़िस्मत का सिकंदर निकला
क़ुरआ-ए-फ़ाल मेरे नाम का अक्सर निकला
था जिन्हें ज़ो’म वो दरिया भी मुझी में डूबे
मैं कि सहरा नज़र आता था समुंदर निकला
मैं ने उस जान-ए-बहाराँ को बहुत याद किया
जब कोई फूल मेरी शाख़-ए-हुनर पर निकला
शहर-वालों की मोहब्बत का मैं क़ाएल हूँ मगर
मैं ने जिस हाथ को चूमा वही ख़ंजर निकला
तू यहीं हार गया है मेरे बुज़दिल दुश्मन
मुझ से तन्हा के मुक़ाबिल तेरा लश्कर निकला
मैं कि सहरा-ए-मोहब्बत का मुसाफ़िर था ‘फ़राज़’
एक झोंका था कि ख़ुश्बू के सफ़र पर निकला

 

मुंतज़िर कब से तहय्युर है तेरी तक़रीर का
बात कर तुझ पर गुमाँ होने लगा तस्वीर का
रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई
ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर का
इश्क़ में सर फोड़ना भी क्या कि ये बे-मेहर लोग
जू-ए-ख़ूँ को नाम दे देते हैं जू-ए-शीर का
जाने किस आलम में तू बिछड़ा कि है तेरे बग़ैर
आज तक हर लफ्ज़ फ़रियादी मिरी तहरीर का
जिस तरह बादल का साया प्यास भड़काता रहे
मैं ने ये आलम भी देखा है तेरी तस्वीर का
किस तरह पाया तुझे फिर किस तरह खोया तुझे
मुझ सा मुंकिर भी तो क़ाएल हो गया तक़दीर का
जिस को भी चाहा उसे शिद्दत से चाहा है ‘फ़राज़’
सिलसिला टूटा नहीं है दर्द की ज़ंजीर का


ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में
तमाम तेरी हिकायतें हैं
ये तज़्किरे तेरे लुत्फ़ के हैं
ये शेर तेरी शिकायतें हैं
मैं सब तिरी नज़्र कर रहा हूँ
ये उन ज़मानों की साअतें हैं
जो ज़िंदगी के नए सफ़र में
तुझे किसी वक़्त याद आएँ
तो एक इक हर्फ़ जी उठेगा
पहन के अन्फ़ास की क़बाएँ
उदास तन्हाइयों के लम्हों
में नाच उट्ठेंगी ये अप्सराएँ
मुझे तेरे दर्द के अलावा भी
और दुख थे ये मानता हूँ
हज़ार ग़म थे जो ज़िंदगी की
तलाश में थे ये जानता हूँ
मुझे ख़बर थी कि तेरे आँचल में
दर्द की रेत छानता हूँ
मगर हर इक बार तुझ को छू कर
ये रेत रंग-ए-हिना बनी है
ये ज़ख़्म गुलज़ार बन गए हैं
ये आह-ए-सोज़ाँ घटा बनी है
ये दर्द मौज-ए-सबा हुआ है
ये आग दिल की सदा बनी है
और अब ये सारी मता-ए-हस्ती
ये फूल ये ज़ख़्म सब तिरे हैं
ये दुख के नौहे ये सुख के नग़्मे
जो कल मिरे थे वो अब तिरे हैं
जो तेरी क़ुर्बत तिरी जुदाई
में कट गए रोज़-ओ-शब तिरे हैं
वो तेरा शाइ’र तिरा मुग़न्नी
वो जिस की बातें अजीब सी थीं
वो जिस के अंदाज़ ख़ुसरवाना थे
और अदाएँ ग़रीब सी थीं
वो जिस के जीने की ख़्वाहिशें भी
ख़ुद उस के अपने नसीब सी थीं
न पूछ इस का कि वो दिवाना
बहुत दिनों का उजड़ चुका है
वो कोहकन तो नहीं था लेकिन
कड़ी चटानों से लड़ चुका है
वो थक चुका था और उस का तेशा
उसी के सीने में गड़ चुका है


करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे
वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे
ये लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूँ अब कहाँ से लाऊँ उसे
मगर वो ज़ूद-फ़रामोश ज़ूद-रंज भी है
कि रूठ जाए अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे
वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासेहो गँवाऊँ उसे
जो हम-सफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है ‘फ़राज़’
अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे

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